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वि॒द्यामा॑दित्या॒ अव॑सो वो अ॒स्य यद॑र्यमन्भ॒य आ चि॑न्मयो॒भु। यु॒ष्माकं॑ मित्रावरुणा॒ प्रणी॑तौ॒ परि॒ श्वभ्रे॑व दुरि॒तानि॑ वृज्याम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vidyām ādityā avaso vo asya yad aryaman bhaya ā cin mayobhu | yuṣmākam mitrāvaruṇā praṇītau pari śvabhreva duritāni vṛjyām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒द्याम्। आ॒दि॒त्याः॒। अव॑सः। वः॒। अ॒स्य। य॒त्। अ॒र्य॒म॒न्। भ॒ये। आ। चि॒त्। म॒यः॒ऽभु। यु॒ष्माक॑म्। मि॒त्रा॒व॒रुणा॒। प्रऽनी॑तौ। परि॑। श्वभ्रा॑ऽइव। दुः॒ऽइ॒तानि॑। वृ॒ज्या॒म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:27» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:6» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आदित्याः) सूर्य के तुल्य विद्या के प्रकाशक लोगों तथा हे (अर्यमन्) श्रेष्ठ मनुष्यों का सत्कार करनेहारे सज्जन (यत्) जो (भये) भय होने में (वः) आपको (अस्य) इस (अवसः) पालन के निमित्त (चित्) थोड़ा भी (मयोभु) सुखदायी वचन हो उसको मैं (आ,विद्याम्) प्राप्त होऊँ वा जानूँ तथा हे (मित्रावरुणा) प्राणापान के तुल्य सुखदायी विद्वानों (युष्माकम्) तुम्हारी (प्रणीतौ) उत्तम नीति में (श्वभ्रेव) पृथिवी के गढ़े के तुल्य (दुरितानि) दुःख देनेवाले पापों को (परि,वृज्याम्) परित्याग करूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे विद्वान् लोग सब प्राणियों के भय का विनाश कर सुख पहुँचा के पापों को निवृत्त करते हैं, वैसा निरन्तर करें ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे आदित्या हे अर्यमन् यद्भये सति वोऽस्यावसश्चिन्मयोभु स्यात्तदहमाविद्याम्। हे मित्रावरुणा युष्माकं प्रणीतौ श्वभ्रेव दुरितानि परिवृज्याम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विद्याम्) जानीयां लभेय वा (आदित्याः) सूर्यवद्विद्याप्रकाशकाः (अवसः) रक्षणस्य (वः) युष्माकम् (अस्य) (यत्) (अर्यमन्) योऽर्यान् श्रेष्ठान् मनुष्यान् मिमीते मन्यते तत्सम्बुद्धौ (भये) (आ) (चित्) (मयोभु) भयः सुखं भवति यस्मात्तत् (युष्माकम्) (मित्रावरुणा) प्राणाऽपानाविव सुखप्रदौ (प्रणीतौ) प्रकृष्टायां नीतौ (परि) (श्वभ्रेव) गर्त्तमिव (दुरितानि) दुःखदानि पापानि (वृज्याम्) त्यजेयम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा विद्वांसोऽखिलस्य प्राणिसमुदायस्य भयं विनाश्य सुखं सम्भाव्य पापानि वर्जयन्ति तथा सततमनुष्ठेयम् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक सर्व प्राण्यांच्या भयाचा नाश करून सुख देतात व पाप निवृत्त करतात, तसे माणसांनी निरंतर करावे. ॥ ५ ॥